तपेश जैन

Monday, February 8, 2010

नगर निगम चुनाव के बाद अब पंचायत चुनाव में भी

0 नगर निगम चुनाव के बाद अब पंचायत चुनाव में भी भाजपा नेताओं के बगावती तेवर से पार्टी मुश्किल में

0 भगत का निष्कासन टला, बागियों के हौसले बुलंद

0 कांग्रेस में भी गुटबाजी, अंतर्कलह के बाद भी कांग्रेसियों की जीत से हौसला अफजाई

तपेश जैन

रायपुर। पंचायत चुनाव के पहले चरण के नतीजें से स्पष्ठ है कि कांग्रेस को बिना कुछ ज्यादे मेहनत के बहुत कुछ हासिल हो रहा है। इसकी एक ही वजह है और वो हैं भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के बीच आपसी मतभेद। और ऐसा नहीं है कि कांग्रेस से जुड़े प्रत्योशियों को पार्टी की एकजुटता से लाभ हो रहा है। कांग्रेस में भी भारी अन्र्तविरोध है लेकिन सत्तारुढ़ दल की अन्र्तकलह का ज्यादा नुकसान हो रहा है और इसके चलते बीजेपी उम्मीदवारों को पराजय का मुंह देखना पड़ रहा है। पहले चरण के नतीजों को देखते हुए यह आंकलन किया जा रहा है कि पार्टी को इस चुनाव में भारी नुकसान हो सकता है। इधर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने संभावित परिणामों की आशंका के तहत अंतिम समय में पार्टी संगठन को पूरी जानकारी दे दी है कि कैसे पार्टी की जड़ें खोदी जा रही है। मंत्रियों के आपसी मनमुटाव के अलावा महत्वकांक्षाओं के कारण जनता में विपरीत असर पड़ रहा है और पार्टी के वोटों का ग्राफ लगातार कम हो रहा है।

गौरतलब है कि बीजेपी इन दिनों संक्रमण काल से गुजर रही है। राष्ट्रीय स्तर में जनाधार कम होने के साथ-साथ अब प्रदेश में लोकप्रियता घटने लगी है। केन्द्र की सत्तारुढ़ यूपीए का कामकाज भले ही बेहतर ना हो लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी की दिनोंदिन बढ़ती प्रसिद्धी से कांग्रेस को जबर्दस्त लाभ मिल रहा है। प्रदेश के पंचायत चुनाव मेें भी राहुल फैक्टर ने कांग्रेस को पुन: जीवित कर खड़ा कर दिया है। हालांकि प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं के घमासान जारी हैं, लेकिन लहुलुहान पार्टी को चुनावों में बहुत ज्यादा मेहनत के बिना मिल रही जीत से संजीवनी मिल रही है। हाल ही में संपन्न नगर निगम चुनावों में उम्मीद से कहीं ज्यादा अच्छे नतीजे कांग्रेस के पक्ष में निकले हैं। रायपुर, बिलासपुर और राजनांदगांव जैसे प्रतिष्ठापूर्ण नगर निमगों में स्तात की बागडोर हाथ में है तो कई नगर पंचायत एवं नगर पालिकाओं में अप्रत्याशित विजय हासिल हुई। अब पंचायत चुनाव के पहले चरण में भी पार्टी की अच्छी बढ़त मिली है और बाकी दो चरणों में भी उम्मीद बढ़त मिली है और पार्टी बाकी दो चरणों में भी उम्मीद से अधिक का आंकलन है। दूसरी और सत्तारुढ़ दल में नेताओं के मतभेद लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। बिना किसी पार्टी चुनाव चिन्ह के हो रहे पंचायत चुनाव में बीजेपी जिला पंचायत सदस्यों के लिए उम्मीदवारी घोषित की है। इन प्रत्याशियों के खिलाफ भी पीर्टी के बागियों को नेताओं ने खड़ा कर दिया है। इसके चलते मुकाबला कड़ा हो गया है। वहीं कांग्रेस से जुड़े उम्मीदवारों को लाभ मिल रहा है। भाजपा के जिन नेताओं ने पार्टी उम्मीदवारों के खिलाफ कैंडीडेट खड़े हैं किए हैं उसमें प्रमुख रूप से पूर्व मुख्यमंत्री गणेशराम भगत का काम हैं। बताया जाता है कि जशपुर जिला में कई पंचायतों में भाजपा समर्थित प्रत्याशी निर्विरोध जीत की स्थिति में थे लेकिन श्री भगत ने अपने समर्थकों को मैदान में उतारकर चुनौती दे दी है। याद दिला दें कि जशपुर में सांसद दिलीप सिंह जुदेव का जबर्दस्त प्रभाव है और नगर पालिका के सभी पार्षद भाजपा के चुने गये हैं। श्री भगत को पिछला विधानसभा चुनाव निर्वाचन क्षेत्र बदलकर सीतापुर से लडऩा पड़ा था जिसमें वे हार गए। इस हार से बौखलाए श्री भगत ने पंचायत चुनाव में बागियों को चुनाव समर में उतारकर उलझनें उत्पन्न कर दी है। श्री भगत की इस बगावत के खिलाफ पार्टी ने उन्हें पार्टी से बाहर निकालने की मन: स्थिति बना ली थी लेकिन वनवासी कल्याण आश्रम के हस्तक्षेप के बाद मामला टल गया है।

श्री भगत को पार्टी से निष्कासित करने की बजाय उन्हें छूट देने पर विचार किया जा रहा है। वहीं कई क्षेत्रोंं में मंत्रियों सहित कई प्रभावशील नेताओं के बागी प्रत्याशियों ने बीजेपी की बेहतर संभावनाओं को पराजय में बदल दिया है। बहरहाल सीधे-सरल मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के लिये पंचात चुनाव नतीजों के बाद जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न होंगे। परिणामों से ही निष्कर्ष निकलेगा कि भाजपा में फिर जीत की खुशियों में विद्रोह के स्वर दब जायेंगे या फिर बागी तेवरों में उफान आएगा।



चाय पियो, मस्त जियो

तपेश जैन

'वाह उस्ताद नहीं, वाह ताज कहिए हुजूर मशहूर तबलावादक जाकिर हुसैन जब यह कहते हैं तो वे हिन्दुस्तान लीवर के ब्रुकब्रांड ताजमहल चाय का प्रचार करते हैं। पहले सिनेमाघरों में लिप्टन टाइगर चाय का विज्ञापन भी लोगों का ध्यान आकर्षित करता था। इन दोनों विज्ञापनों से हटकर बात करें तो चाय आज शिष्टाचार का माध्यम बन गया है। चाय के साथ मेहमानं का स्वागत परंपरा बन गई है। आज ऐसा घर ढूंढऩा मुश्किल है, जहां चाय न बनती हो। हर उम्र, वर्ग के लोग इसके दीवाने हैं। दूधवाली चाय के साथ अब नींबू वाली काली चाय और टी बैग का चलन धीरे-धीरे बढ़ रहा है। एक कप चाय के लिए बने टी बैग को ï'डीप-डीपÓ के विज्ञापन के चलते डीप-डीप चाय कहा जाने लगा है, जैसे वनस्पति घी कभी डालडा ब्रांड के नेम की वजह से जाना जाता था। रायपुर में औसतन प्रतिदिन 50 हजार किलो चायपत्ती की बिक्री का अनुमान है।

आम लोगों में चाय के प्रति चाहत दीवानगी की हद तक देखा गया है। चाय के तलबगार कम नहीं है लेकिन नई पीढ़ी में चाय के प्रति लगाव जरूर कुछ कम हुआ है। भारत सरकार के टी बोर्ड के अनुसार नई पीढ़ी में चाय का चलन कम होना चिंता का विषय है । 24 साल से नीचे की उम्र के 60 फीसदी युवा चाय के स्थान पर सॉफ्ट ड्रिंक पीना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। चाय के प्रति कमी होती चाहत को देखते हुए टी बोर्ड ने अभियान शुरु किया है जिसका नाम है ï''चाय पियो - मस्त जियोÓÓ। भारत सरकार ने भी इस अभियान को प्रोत्साहित किया है। टी बोर्ड के अनुसार ही देश के करीब बीस करोड़ लोग प्रतिदिन औसतन दो कप चाय पीते हैं । इस हिसाब से भारतीय एक वर्ष में करीब 780 ग्राम चायपत्ती का उपयोग साल भर में करते हैं। वहीं देश में पैकेट चाय के मुकाबले खुली चायपत्ती भी ज्यादा बिकती है इसकी एक वजह इसकी कम कीमत भी होना है। इसको ध्यान में रखतेहुए टाटा टी ने खुली चायपत्ती के बाजार से प्रतिस्पर्धा करते हुए ब्रांडेड और पैकेट चाय में सबसे कीमत की चायपत्ती टाटा अग्नि को 250 ग्राम पैकिंग में 30 रुपए में बाजार में उतारा और हिन्दुस्तान लीवर को पछाड़ दिया।

लगभग आधी कीमत के इस अग्निब्रांड ने हिन्दुस्तान ब्रुकब्रांड के 18 फीसदी मार्केट शेयर को पीछे करते हुए 19.2 फीसदी बाजार में कब्जा कर इतिहास रच दिया है। छत्तीसगढ़ चाय व्यापारी संघ के अध्यक्ष कमल देसाई के अनुसार राज्य के कई चाय व्यापारियों के क्वालिटी को ध्यान में रखते हुए डब्बाबंद पैकिंग में चाय प्रस्तुत की है और कई ब्रांड सफल भी रहे हैं । चाय विक्रेता विजय जैन के अनुसार फैमली स्पेशल, अमृत, राजश्री, ऐलेन, कोनार्क, रेड सूर्या, सवेरा, नंबर वन, लक्ष्मण श्री और जेके ब्रांड चायपत्ती की खासी मांग है।

किस्म-किस्म की चायपत्ती : बाजार में चायपत्ती की तरह-तरह की किस्म है। टाटा टी ही चाय ब्रांडनेम, टाटा गोल्ड, अग्नि, प्रीमीयम, लाइफ के अलावा ग्रीनटी और ऑर्थोडाक्स टी के साथ ही टेटली टी बैग में लेमन, जिंजर मसाला और इलायची का फ्लैवर उपलब्ध करवाया है। 25 टी बैग का पैक 25 रुपए में और 100 टी बैग का 70 रुपये में उपलब्ध है तो ग्रीन टी प्रीमीयन और हनी लेमन के साथ दस टी बैग की कीमत 25 रुपए में उपलब्ध है तो ताजमहल 100 पास टी बैग 78 रुपए में बिकता है। टाटा के अलावा हिन्दुस्तान लीवर ब्रुकब्रांड का रेड लेबल, ताजा, ताजमहल भी लोगों की पहली पसंद है। इसके अलावा डंकस की डबल डायमंड, सरगम और गोदरेज, गुडरिक और एवरेड्डी ग्रुप की तेज और जागो भी बाजार में प्रचलित है।

मोटी और बारीक चायपत्ती के भेद : ï'कड़के करारे दोनों के साथ हर प्याले में भर दे एक जोशीला स्वाद । इसके हर घूंट में मिले जबर्दस्त ताजगी की आप उत्साह से भर जाए तो पीजिए ब्रुकब्रांड ताजा और उत्साहित मन से बनाइए आपकी हर कोशिश कामयाब।Ó यह लाइन ब्रुकब्रांड ताजा चायपत्ती के पैक में लिखी गई है। ज्यादातर डब्बाबंद चाय पैकेट में दानेदार चाय होती है। घरों में ज्यादातर मोटी चायपत्ती पसंद की जाती है तो होटल, ढाबों, ठेलों में बारीकग चायपत्ती पसंद की जाती है। इसकी वजह यह है कि बारीक चायपत्ती जल्दी ही गर्म पानी में रंगत दे देती है। दानेदार चाय में फ्लैवर ज्यादा होता है और इससे एक दो उबाल देने के बाद कुछ देर के बाद पेश किया जाए तो फ्लैवर का आनंद लिया जा सकता है।

स्वास्थ्यवर्धक भी है चाय

चाय के प्रति आम धारणा है कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । इस भ्रांति को तोडऩे के लिए टी बोर्ड ने कई अनुसंधानों के हवालों से पुस्तिका प्रकाशित करवाई है जिसमें अमेरिका हैल्थ फाउडेंशन के डॉ. जान वाईस बर्गर के हवाले से बताया गया है कि चाय में विशेष एंटी-ऑक्सीडेण्टस के साथ-साथ स्वास्थ्य को बेहतर बनाने वाले कई तत्व मौजूद होते हैं जो दिल की बीमारी, दिल का दौरा और मुंह, पैनीक्री, ऑरिक व प्रोस्ट्रेट जैसे कई प्रकार के कैंसर को कम करते हैं।

छत्तीसगढ़ के प्रमुख तीर्थ स्थलों की एक झलक

भारतवर्ष की पावन भूमि के हृदय प्रक्षेत्र में स्थित छत्तीसगढ़ अनादिकाल की देवभूमि ेक रूप में प्रतिष्ठिïत है। इस भूमि पर विभिन्न संप्रदायों के प्रमुख मंदिर, मठ, देवालय इस प्रक्षेत्र की विशिष्टï संस्कृति और परंपराओं के परिचायक हैं। अपने देश के विविध क्षेत्रों की धार्मिक, पौराणिक, आध्यात्मिक महत्ता शास्त्रों और पुराणों में रुपायित मिलती है। छत्तीसगढ़ भी ऐसा ही प्रक्षेत्र है जिसकी यात्रा का पुण्य लाभ जन-जन के लिए शुभकारी है। यहां शैव, वैष्णव, जैन एवं बौद्ध धर्म तथा शाक्त संप्रदाय के इष्टïदेवों की प्रतिमाएं इस भूमि की महत्ता स्वत: परिभाषित करती हैं। छत्तीसगढ़ के प्रयागराज राजिम, रतनपुर, डोंगरगढ़, खल्लारी, दंतेवाड़ा, बारसूर, देवभोग, सिहावा, आरंग, भीमखोज, सिरपुर, भोरमदेव, मल्हार, शिवरीनारायण, ताला, जांजगीर, पाली, खरौद, डीपाडीह, दंतेवाड़ा, भैरमगढ़, कवर्धा, अंबिकापुर, दामाखेड़ा, गिरौदपुरी जैसे प्रभृति क्षेत्रों में अवस्थित साधना और आराधना के पावन केंद्र इस प्रक्षेत्र की आलौकिकता व दिव्यता को रेखांकित करते हैं। वर्तमान में भी पुरातत्व विभाग छत्तीसगढ़ के अनादिकालीन स्वरूप को निखारने के कार्य में मशक्कत के साथ जुटा हुआ है। आइए हम जानते हैं छत्तीसगढ़ के कुछ ऐसे स्थलों के विषय में जहां होती है हमें पराशक्ति और परमेश्वर से साक्षात्कार की अनुभूति।

रायपुर - छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी और राजधानी रायपुर में अवस्थित है प्राचीनतम मराठाकालीन दूधाधारी मठ, महामाया मंदिर, हटकेश्वर महादेव मंदिर, बंजारी मंदिर, रावाभाठा, कंकाली मंदिर और शदाणी दरबार। ये सभी स्थल राजधानी से दस बारह किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है जहां पर्व-प्रसंगों पर श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है।

राजिम - रायपुर से 45 किलोमीटर दूर राजिम में भगवान राजीवलोचन मंदिर, कुलेश्वर महादेव, तेलिन सती का मंदिर, राम-जानकी मंदिर, पंचकोशी परिक्रमा प्रक्षेत्र, लोमष ऋषि का आश्रम और साथ ही पैरी, सोंढूर और महानदी का त्रिवेणी संगम स्थल। यहां पुरातनकाल से ही माघ मास में राजिम मेला लगता रहा है जिसमें सम्मिलित होकर हजारों की संख्या श्रद्धालुजन भगवान राजीवलोचन और कुलेश्वर महादेव जी पूजा-अर्चना कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं।

चम्पारण - रायपुर से 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है चम्पारण जहां वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी वल्लभाचार्य जी का प्राकट्य हुआ था। देशभर वैष्णव संप्रदाय से संबद्ध श्रद्धालुजनों चम्पारण की यात्रा कर पावन तिथियों पर आयोजित महोत्सव में सम्मिलित होकर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं। इस पावन स्थली पर न केवल गुजराती समाज के श्रद्धालुजनों की प्रगाढ़ आस्था है वरन सभी संप्रदायों के लोग यहां आते हैं और श्री वल्लभाचार्य के जीवन चरित्र से प्रेरित होकर देवआराधना के पुण्यप्रद मार्ग पर अग्रसर होते हैं।

आरंग - रायपुर से 36 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है आरंग जिसे शिव की नगरी भी माना जाता है। यहां जैन सरोहर, प्राचीन जैन मंदिर भाण्ड देवल, प्रसिद्ध शिव मंदिर-नागेश्वर मंदिर अवस्थित हैं। महानदी के किनारे बसे आरंग के इर्द-गिर्द छोटे-बड़े अनेक मंदिर व साधना केंद्र हैं जो इसे शिवभक्तों की नगरी के रुप में प्रतिष्ठिïत करते हैं।

सिरपुर - रायपुर से 84 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है छत्तीसगढ़ की प्राचीनतम राजधानी सिरपुर। यहां अवस्थित है 7-8वीं सदी में ईंटों से निर्मित लक्ष्मण मंदिर जो अपने आप में अद्भुत कलात्मक अभिव्यक्ति को समेटे हुए हैं। महानदी के पास स्थित है प्राचीन गंधेश्वर शिव मंदिर जहां प्रतिवर्ष शिवरात्रि के अवसर पर मेले की परंपरा वर्षों से चली आ रही है। इसके अलावा सिरपुर में बौद्ध स्मारक, स्वास्ति बौद्ध विहार, आनंद प्रभु बौद्ध विहार, संग्रहालय आदि भी इस प्रक्षेत्र की विशेषता की ओर इंगित करते हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वïेनसांग ने भी भारत भ्रमण के संदर्भ में अपनी अभिव्यक्ति में इस स्थान को प्रमुखता के साथ उद्दत किया है।

तुरतुरिया - रायपुर से 125 किलोमीटर दूर स्थित है तुरतुरिया जिसे धार्मिक स्थल के रुप में मान्यता प्राप्त है। जनश्रुति है कि इस पावन प्रक्षेत्र में महर्षि वाल्मीकि जी ने आश्रम की स्थापना की थी। यहां भी हर वर्ष तिथि विशेष पर मेले की परंपरा वर्षों से चली आ रही है।

गिरौदपुरी - रायपुर से 125 किलोमीटर दूर स्थित है गिरौदपुरी जो सतनाम पंथ के प्रवर्तक धर्मगुरु संत बाबा गुरु घासीदास की जन्मस्थली है। गिरौदपुरी विश्व भर में सतनाम पंथ के अनुयाइयों की आस्था का पावन केंद्र है। यहां भी वर्षों से मेले की परंपरा चली आ रही जिसमें लाखों की संख्या में सतनाम समाज के लोग जुटते हैं और पूरी श्रद्धा के साथ गुरु बाबा घासीदास जी की आराधना करते हैं।

पलारी - रायपुर से 68 किलोमीटर दूर स्थित पलारी में ईंटों से निर्मित शिव मंदिर है। यह मंदिर 8-9वीं में बना हुआ माना जाता है। इस मंदिर में भी शिव भक्त सुदूर इलाकों से आकर शिव आराधना करते हैं।

नारायणपुर - रायपुर से 112 किलोमीटर दूर स्थित है नारायणपुर में शिवजी का प्राचीन मंदिर है। 10-11वीं सदी में निर्मित इस मंदिर की कलात्मक छटा देखते ही बनती है। यहां भी शिव भक्त अपने ईष्टï देव की कृपा प्राप्ति के लिए साधना और आराधना बरसों से करते आ रहे हैं।

खल्लारी - रायपुर से 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित खल्लारी का जगन्नाथ मंदिर अंचल का प्रमुख धार्मिक स्थल है। 10-11वीं सदी कलचुरीकाल में हम इस मंदिर का निर्माण हुआ था। इस मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है मां खल्लारी का मंदिर जहां प्रतिवर्ष चैत्र माह में मेला लगता है।

सिहावा - रायपुर से 160 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है सिहावा-नगरी। सिहावा पर्वत महानदी की उद्गम स्थली है। इसी पर्वत पर श्रृंगी ऋषि जी का आश्रम है। यहां 9-10वीं सदी में निर्मित बणेशवर शिवमंदिर है। सिहावा के पर्वतीय इलाकों में सप्त ऋषि - अंगिरा, शरभंग, मुचकुंद अगस्त्य आदि ऋषियों के आश्रम होने की जनश्रुति प्रचारित है।

देवखूंट - रायपुर से 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नगरी के पास देवखूंट में प्राचीन शिवमंदिर है जो वर्तमान में महानदी के दुधावा बांध डुबान में जलमग्र है। यह मंदिर पुरातत्व की दृष्टिï से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहां 10-11वीं सदी की गदरुडऩारायण एवं उमामहेश्वर की अत्यंत ही कलात्मक प्रतिमा संरक्षित है।

दामाखेड़ा - रायपुर से 85 किलोमीटर दूर स्थित दामाखेड़ा कबीरपंथियों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। यहां हर साल कबीर जयंती के अवसर पर विशाल मेला लगता है जिसमें सम्मिलित होने देश के कोने-कोने से श्रद्धालुजन आते हैं। विदेशों में निवासरत कबीरपंथी भी इस मेले में सम्मिलित होते हैं।

देवबलोदा - रायपुर से 20 किलोमीटर की दूरी पर भिलाई मार्ग पर स्थित देवबलोदा का प्राचीन शिवमंदिर है। यह पुरातात्विक दृष्टिïकोण से अत्यंत ही महत्वपूर्ण मंदिर है। 10-11वीं सदी में शिल्पांकित इस मंदिर में कलात्मक शिल्पकारी अत्यंत मनोहारी है। इस मंदिर में तत्कालीन सामाजिक समरसता को प्रदर्शित कर छत्तीसगढ़ की धार्मिकता में सामाजिक मूल्यों का चित्रण किया गया है।

बालोद - रायपुर से 98 किलोमीटर व दुर्ग से 58 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है बालोद जहां प्राचीन किला, मंदिर एवं सती चबूतरा दर्शनीय है।

झलमला- दुर्ग से 98 किलोमीटर की दूरी पर बालोद के पास ही स्थित है ग्राम झलमजला। यहां छत्तीसगढ़ की गोड़ जाति द्वारा इष्टïदेवी के रुप में पूजित मंदिर गंगा मैया का प्रसिद्ध मंदिर है। यहां नवरात्रि पर मेला लगता है जिसमें सम्मिलित होने समीपवर्ती गांव के हजारों श्रद्धालु आते हैं।

देऊरबीजा-सीतादेवी मंदिर - दुर्ग जिले के बेमेतरा से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है देऊरबीजा ग्राम जहां प्रसिद्ध सीतादेवी मंदिर है। 10-11 सदी का यह मंदिर अत्यंत कलात्मक है।

सरदा - रायपुरसे 50 किलोमीटर एवं बेमेतरा से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है सरदा। यहां 7-8वीं सदी में निर्मित प्राचीन शिव मंदिर में उमा-महेश्वर एवं अद्र्ध-नारीश्वर की प्रतिमा विशेष रूप से दर्शनीय है क्योंकि इस प्रतिमा में पार्वती को शिव की बांई ओर प्रदर्शित न कर दाहिनी ओर प्रदर्शित किया गया है जो छत्तीसगढ़ के मूर्ति-शिल्प में विलक्षण कही जाती है।

धमधा-त्रिमूर्ति महामाया- दुर्ग से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है धमधा जहां कलचुरी काल में निर्मित प्राचीन किला दर्शनीय है। यहां त्रिमूर्ति महामाया मंदिर में मां महामाया अधिष्ठïात्री देवी के रुप में प्रतिष्ठिïत है। इस मंदिर में मां के दर्शनार्थ दूर-दूर से श्रद्धालुजन आते हैं।

नगपुरा-जैन तीर्थ - दुर्ग जिले से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अंचल का प्रसिद्ध जैन तीर्थ नगपुरा। यहां भगवान पाश्र्वनाथ जी का प्राचीन जैन मंदिर है। श्री उवसग्गहरं पाश्र्वनाथ मंदिर के दर्शन हेतु देश के कोने-कोने से जैन तीर्थ यात्री आते हैं। संपूर्ण भारत वर्ष में अवस्थित में जैन तीर्थ स्थलों में नगपुरा की विशेष महत्व है।

मां बम्लेश्वरी देवी - डोंगरगढ़ - छत्तीसगढ़ के आद्याशक्ति की आराधना का अप्रतिम केंद्र है। डोंगरगढ़ जहां पहाड़ी पर बगुलामुखी स्वरूपा मां बम्लेश्वरी विराजमान है। डोंगरगढ़ प्राचीनकाल में कामंतीपुर के नाम से जाना जाता है जहां के राजा कामसेन ने अपनी ईष्टï देवी का मंदिर स्थापित करवाया था। डोंगरगढ़ हावड़ा-मुंबई रेल मार्ग पर स्थित है। 1600 फीट की ऊंचाई पर स्थित मां बम्लेश्वरी के इस मंदिर में दोनों ही नवरात्रियों में दर्शनार्थियों का हुजूम उमड़ता है। बम्लेश्वरी देवी का एक और मंदिर नीचे स्थित है जिसकी प्रसिद्धि छोटी बम्लई के रूप में है। डोंगरगढ़ में ही एक अन्य पहाड़ी पर भगवान गौतम बुद्ध की 30 फीट ऊंची प्रतिमा है जिसकी प्रज्ञागिरी के रुप में प्रसिद्ध इस स्थल पर बौद्ध धर्म के श्रद्धालुजनों का मेला लगता है।

मौलीमाता मंदिर, सिंगारपुर-भाटापारा-रायपुर से 67 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मौली माता का मंदिर जो प्राचीन है। भाटापारा के सिद्ध स्थल क्षेत्र में औघड़ भगवान राम ने मां महाकाली की आराधना के लिए मंदिर की स्थापना की थी। इस मंदिर की अपनी अलग ही महत्ता है जहां दूर-दूर से श्रद्धालुजन आते हैं और मां महाकाली का आशीष प्राप्त करते हैं।

विन्ध्यवासिनी देवी बिलईमाता-धमतरी - रायपुर से 80 किलोमीटर दूर धमतरी में मां विन्ध्यवासिनी देवी का मंदिर स्थित है। विन्ध्यवासिनी देवी की ख्याति बिलईमाता के रुप में भी है। जनश्रुति के अनुसार गोड़ नरेश धुर्वा ताल ने इसे बनाया है। यहां नवरात्रि के अवसर पर मेला लगता है।

कंकालीन माता - कांकेर - रायपुर से 140 किलोमीटर दूर स्थित हैं कांकेर जहां का कंकालीन माता मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का अति पावन केंद्र है। बस्तर के नागवंशीय , नलवंशीय तथा सोमवंशीय राजाओं की इष्टïदेवी के रूप में कंकालीन माता की प्रतिष्ठïा है। इसी मंदिर के समीप ही भैरवी देवी की एक प्राचीन मूर्ति है।

दंतेश्वरी देवी - दंतेवाड़ा - जगदलपुर से 80 किलोमीटर दूर काकतीय वंश के राजाओं की आराध्य देवी दंतेश्वरी देवी का प्राचीन मंदिर है। शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम स्थल के समीप स्थित दंतेश्वरी मंदिर में प्रतिष्ठिïत आद्याशक्ति की प्रतिमा दर्शनीय है। मां दंतेश्वरी का प्रकाट्य असुरों के नाश के लिए हुआ था।

बारसूर - जगदलपुर जिले में गीदम से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है बारसूर जो असुरराज बाणासुर की राजधानी थी। यहां विश्व में तीसरी गणेश जी की विशाल प्रतिमा है। कुछ ही दूरी पर स्थित मामा-भांजा मंदिर, बत्तीसा मंदिर, सन्द्रादित्य मंदिर भी दर्शनीय है। बारसूर के ये सभी मंदिर 11वीं सदी के बताए जाते हैं।

महामाया देवी - रतनपुर- बिलासपुर से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं रतनपुर जहां अवस्थित महामाया देवी का अति प्राचीन मंदिर। इस मंदिर को शक्तिपीठ के रुप में मान्यता प्राप्त है। शास्त्रों और पुराणों में वर्णित कथानुसार यहां आद्याशक्ति के दो अंग गिरे थे। मंदिर में अवस्थित विग्रह के दो स्वरूप हैं। यहां हर वर्ष नवरात्रि के अवसर पर भव्य मेले की परंपरा वर्षों से चली आ रही है।

मल्हार डिडनेश्वरी देवी एवं पातालेश्वर मंदिर - बिलासपुर से 32 किलोमीटर की दूरी पर स्थित छत्तीसगढ़ की प्राचीन नगरी मल्हार। यहां डिडनेश्वरी देवी का अति प्राचीन नगरी मल्हार। यहां डिडनेश्वरी देवी का अति प्राचीन मंदिर है। समीप ही पातालेश्वर महादेव का मंदिर जिसका निर्माण कलचुरी काल में हुआ था। यहां शैव, वैष्णव, जैन एवं बौद्ध धर्मों के पुरावशेष विद्यमान हैं।

शिवरीनारायण मंदिर - पुरुषोत्तम तीर्थ के रुप में विख्यात शिवरीनारायण बिलासपुर से सड़क मार्ग पर 65 किलोमीटर की दूरी पर तथा रायपुर से 178 किलोमीटर कीदूरी पर स्थित है। जांजगीर-चांपा के अंतर्गत महानदी, शिवनाथ और जोंकनदी के संगम स्थल पर अवस्थित है शिवरीनारायण का मंदिर। जनश्रुति के अनुसार भगवान राम ने शबरी माता से झूठे बेर इसी स्थान पर खाए थे। इसी कारण इस क्षेत्र का नाम शबरीनारायण पड़ा और कालांतर में शिवरीनारायण के रुप में प्रख्यात हुआ। यह भी जनश्रुति प्रचलित है कि माघ पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ स्वामी पुरी से स्वयं आकर भगवान शिवरीनारायण के दर्शन करते हैं। इस तिथि को यहां मेले की परंपरा वर्षों से चली आ रही है। 12वीं सदी में निर्मित इस मंदिर में विष्णु जी की चतुर्भुजी प्रतिमा है। यहीं पर चंद्रचूड़ महादेव जी का मंदिर भी है।

खरौद लक्ष्मणेश्वर महादेव - बिलासपुर से 42 किलोमीटर एवं शिवरीनारायण से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ग्राम खरौद। खरौद को छत्तीसगढ़ का काशी कहा जाता है। जहां शिव जी का अति

पर्यटन का गढ़-छत्तीसगढ़

तपेश जैन

प्रकृति की गोद में बसा छत्तीसगढ़ प्राचीन सम्राटों एवं राजाओं का केन्द्र स्थल होने के कारण ऐतिहासिक-धार्मिक-स्थलों से परिपूर्ण है। महानदी, शिवनाथ, अरपा, खारून, पैरी, मांड, ईब, इंद्रवती, शबरी, गोदावरी, लीलागर, सोन और नर्मदा के पावन तटों पर कई राजवंशों एवं सम्प्रदायों का उदय और अस्त हुआ। इसके फलस्वरुप उनके अवशेष किले, राज-प्रसादों, मंदिरों, चैत्यों आश्रमों के गौरवमय अतीत की समृतियां शेष है। प्रकृति के अद्भूत नज़ारे और प्राचीन इतिहास पुरात्व की अमर कहानी अमिट अक्षरों में अंकित है। प्रकृति और मानव दोनों के सृजन से छत्तीसगढ़ अद्भूत- आश्चर्यजनक तथ्यों को समेटे हुए हैं । इस तथ्यों के आधार पर छत्तीसगढ़ को पर्यटन का गढ़ कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

छत्तीसगढ़ प्रदेश के शिल्पियों का स्थापत्य-ज्ञान शिल्प नैपुण्य, सौंदर्यबोध और सृजन प्रतिभा विस्मित करती है। कला और संस्कृति का अटूट संबंध है। दोनों के गठजोड़ से स्वरूप सुषमा निखरती है। छत्तीसगढ़ के खंडहर विगत गौरव की कथा के साक्ष्य हैं। प्रदेश के बस्तर ,बिलासपुर, कांकेर, सरगुजा आदि जिलों के उत्खनन और खोज से प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेष मिले हैं । रायगढ़ के पास कबरा पहाड़ की गुफाओं और सरगुजा के निकट रामगढ़ की गुफाओं से मिले सैलचित्र आदिम एवं सुविकसित संस्कृति की धरोहर है। प्राचीन दण्डकारण्य का अधिकांश भाग बस्तर है यहां वनवास काल में भगवान श्रीराम आए थे। महर्षि अगस्त्य का आश्रम यहीं है। ऋषि-मुनियों की साधना भूमि और विविध प्रतापी नरेशों की कर्मभूमि ने महत्वपूर्ण स्मारकों की सृष्टि हुई । महानदी के तट पर बसा सिरपुर नगरी कभी इस प्रदेश दक्षिण कोसल की राजधानी थी। यहां सातवीं शताब्दी का ईंटों से निर्मित प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर अपने शिल्प वैभव के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। सिरपुर का पुरातन नाम श्रीपुर था जिसका अर्थ है समृद्धि की नगरी । सातवीं सदी में चीनी यात्री व्हेनसांग यहां आया था। कहते हैं कि उस समय करीब दस हजार बौद्ध भिक्षु यहां शिक्षा ग्रहण करते थे। यहां बौद्ध विहार, आनंद प्रभु कुटीर, स्वस्तिक विहार दर्शनीय स्थल है । यहां भगवान बुद्ध की अद्भुत प्रतिमाएं प्रस्थापित है। सिरपुर में गंधेश्वर मंदिर के साथ ही अब कई समाजों ने अपने धर्मस्थल स्थापित किए हैं।

छत्तीसगढ़ का प्रयाग राजिम जीवनदायिनी महानदी-पैरी और सांदूर नदियों के त्रिवेणी संगम पर बसा है। प्रसिद्ध राजीव लोचन मंदिर के साथ ही कुलेश्वर महादेव मंदिर प्रसिद्ध है। राजिम से दस किलोमिटर दूर चम्पाचरण वल्लभ सम्प्रदाय के पर्व तक प्रभु वल्लभाचार्य की जन्म स्थली है । यहां चम्पकेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग भी स्थापित है। रायपुर से 35किलोमीटर दूर आरंग में प्रसिद्ध जैन मंदिर भांड-देवल में तीर्थंकर शांतिनाथ, श्रेयांसनाथ और अनंतनाथ की विशालकाय प्रतिमा अद्भूत है। राजिम की ही तरह जांजगीर-चांपा जिले का शिवरीनारायण महानदी शिवनाथ और जोक नदी के संगम पर बसा है। माना जाता है कि भगवान राम ने यहां शबरी के झूठे बेर खाये थे। यहां का जगन्नाथ मंदिर प्रसिद्ध है। शिवरीनारायण से तीन किलोमीटर पूर्व ग्राम खरौद में लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर इतिहास की धरोहर है। कहते हैं भगवान राम ने इस स्थान में खर और दूषण नाम के असूरों का वध किया था।

प्रदेश का बिलासपुर जिला संस्कारधानी के तौर पर प्रसिद्ध है। जिला मुख्यालय से बीस किलोमीटर दूर स्थित रतनपुर को छत्तीसगढ़ की प्रथम राजधानी का गौरव प्राप्त है। रतनपुर में प्रसिद्ध महामाया मंदिर, कण्ठीदेवल, लखनीदेवी मंदिर के साथ ही प्राचीन किला रामदेकरी व गिरजाबंद दर्शनी स्थल है। रतनपुर से दस किलोमीटर दूर खूंटाघाट जलाशय और बत्तीस किलोमीटर दूर ग्राम लुथरा में सैय्यद इंसान अली की दरगाह सभी धर्मावलम्बियों की आस्था का केन्द्र है। इसीत रह मल्हार के बुढ़ीखार में जैन तीर्थंकर आदिनाथ स्वामी परगनिया देवता के रूप में गांव वालों द्वारा पूजित है। आदिनाथ भगवान की तेरह फीट ऊंची विशाल प्रतिमा के साथ ही गाँव के रास्ते पर भगवान बुद्ध अडिय़ल देवता के नाम से विराजमान है। मल्हार में पातालेश्वर मंदिर देऊर मंदिर और डिण्डेश्वरी देवी का मंदिर दर्शनीय स्थल है।

धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला बस्तर आदिवासी संस्कृति और हस्तशिल्प के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है यहां पहाड़ी गुफाओं और जल प्रपातों की लंबी श्रृंखला है। अंधी मछलियों के लिए प्रसिद्ध कुटुमसर गुफा तिलस्म का संसार है। अरण्यक गुफा, कैलाश गुफा, मकर गुफा, मरप गुफा और कनक गुफा प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। एशिया का नियाग्रा नाम से विख्यात चित्रकोट जलप्रपात इन्द्रावती नदी के घाटी में गिरने से बना है । इसी तरह कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में स्थित तीरथगढ़ जलप्रपात बेहद सुंदर है। दन्तेश्वरी में देव्तेश्वरी माई का मंदिर और बारसुर में भगवान गणेश की विशाव मूर्ति अद्भुत है।

छत्तीसगढ़ के दूसरे छोर उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र सरगुजा, कोरिया, रायगढ़ और जशपुर जिले भी जंगल, पहाड़, नदी और जलप्रपातों से सुसज्जित है। रंग शाला के रूप में विख्यात रामगढ़ की गुफायें है। यहां माना जाता है कि कालीदास ने मेघदूत की रचना की थी । रामगढ़ पहाड़ी पर अवस्थित गुफाओं में सम्राट अशोक के काल में लिखित रूप दक्ष और देवदासी सुतनुका प्रेम कथा प्रस्तर खंड में अमर है। विश्व की प्राचीनतम रंगशाला सीता बोंगरा के नाम से प्रसिद्ध है। वहीं कैलाश गुफा, उदयगिरी, कबरापहाड़, सिंघनपुर, ओंगना, बलसदा जैसे पुरातात्विक स्थल है। इस क्षेत्र में रानीदाह और राम झरना जैसे मनोरम जलप्रपात है तो मैनपाट को छत्तीसगढ़ का शिमला भी कहा जाता है जहां बड़ी संख्या में तिब्बती रहते हैं।

छत्तीसगढ़ शैव-वैष्णव-बौद्ध और जैन धर्मों का संगम स्थल है। यहां सदियों पुरानी प्रतिमायें छत्तीसगढ़ के गौरव की साक्षी है। इसी तरह बिलासपुर जिले के मनियारी नदी के तट पर बसे तालाग्राम में देवरानी जेठानी का मंदिर और रूद्रशिव की प्रतिमा जिसके शरीर के अंगों पर जानवरों की आकृतियों विभूषित हैं कई रहस्यों को समेटे हुए है। छत्तीसगढ़ के खजुराहों भोरमदेव कामंदिर अद्भूत मादकता और माधुर्य से देखने वालों का मन मोह लेता है। दुर्ग जिले के प्राचीन शिव मंदिर देव बलौदा और नागपुरा के सात ही राजनांदगांव के गंडई शिवमंदिर का शिल्प और स्थापत्य कला अनूठी है। नगपुरा में जैन तीर्थकंर पार्श्वनाथ की पूजा नाग देवता के रूप में की जाती है। वहीं डोंगरगढ़ पहाड़ी पर मां बम्लेश्वरी मंदिर की महिमा ही निराली है। धमधा में आदिवासियों के आराध्य बुढ़ादेव का मंदिर है तो झलमला में गंगा मैय्या का । नैसर्गिक और प्राकृतिक कौमार्य छत्तीसगढ़ का आकर्षक पहलू है। पाषाण संस्कृति के साथ ही मानव उत्थान के पद चिन्ह यहां मौजूद है ।

भोरमदेव, मल्हार, रतनपुर, सिरपुर, पाली, जांजगीर, शइवरीनारायण, राजिम-चंपारण, नगपुरा, आरंग, बारसुर, रामगढ़ की ऐतिहासिक-पुरातात्विक वैभव से छत्तीसगढ़ को पर्यटन का गढ़ कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा

डोंगरगढ़ : साम्प्रदायिक सद्भावना की मिसाल

तपेश जैन

डोंगरगढ़, राजनांदगांव जिले की इस तहसील को कौमी एकता की मिसाल और तपोभूमि कहा जाए तो गलत नहीं होगा। मां बम्लेश्वरी मंदीर के लिए विख्यात ड़ोगरगढ़ में हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह है। और तो और सभी पूजा-स्थलों की मान्यताएं व किवदंतियां हैं। मुस्लिम समाज यहां टेकरी वाले बाबा और कश्मीर वाले बाबा की दरगाह में सजदा करते हैं, तो सिख ऐतिहासिक गुरुद्वारे में कीर्तन। ईसाइयों का चर्च यहां पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। कहा जाता है, कि ब्रिटिश शासनकाल में बना ये चर्च छत्तीसगढ़ का पहला चर्च है।

आदिवासियों के आराध्य बूढ़ादेव के मंदिर की अपनी अलग दंत कथा है तो दंतेश्वरी मैय्या भी यहां विराजमान है। मूंछ वाले राजसी वैभव के हनुमान जी की छह फीट ऊंची मूर्ति के अलावा खुदाई में निकली जैन तीर्थंकर चंद्रप्रभु की प्रतिमा भव्य एवं विशाल है। बौद्ध धर्मावलंबियों ने यहां प्रज्ञागिरी में भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित कर डोंगरगढ़ को धार्मिक एकता के सूत्र में मजबूती से बांधने का काम किया है। सभी समाजों के पूजा-स्थलों की मान्यताओं के साथ डोंगरगढ़ विख्यात है मां बम्लेश्वरी मंदिर के लिए, पर्वतवासिनी मां बम्लेश्वरी देवी के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं को करीब एक हजार एक सौ एक सीढिय़ां चढऩी पड़ती है। चारों तरफ़ पहाड़ों से घिरे डोंगरगढ़ का इतिहास अद्भुत है। राजा विक्रमादित्य से लेकर खैरागढ़ रियासत तक के कालपृष्ठों में मां बम्लेश्वरी की महिमा गाथा मिलती है।

माँ बम्लेश्वरी सबकी इच्छाएं पूरी करती है। हर समस्या का निदान मां के चरणों में है। सभी धर्म और आध्यात्मिक गुरुओं ने ये स्वीकार किया है कि च्च्आराधना और प्रार्थना अद्भत तरीके से फलदायी होती है। या तो यह मानसिक तौर पर प्रार्थना करने वाले को संबल प्रदान करती है या फिर चमत्कार करती है।ज्ज्

इसी चमत्कार के कारण डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी मंदिर की स्थापना हुई। दंतकथा है कि आज के करीब ढाई हजार साल पहले इस नगर का नाम कामावतीपुरी था। यहां राजा बीरसेन राज करते थे। इनकी कोई संतान नहीं थी । राज को यह जानकारी मिली कि नर्मदा नदी के तट पर एक तीर्थ है। महिष्मती, जहां भगवान शिव की आराधना करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। इस बात का पता चलते ही राजा-रानी ने शुभ मुहुर्त में नर्मदा नदी के तट पर भगवान शंकर और पार्वती की अलग-अलग आराधना की । इस प्रार्थना के एक वर्ष बाद उन्हें सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। इस चमत्कार से अभिभूत होकर राजा बीरसेन ने पहाड़ी की चोटी पर माँ पार्वती के मंदिर की स्थापना की । भगवान शिव अर्थात् महेश्वर की पत्नी होने के कारण पार्वती जी का नाम महेश्वरी भी है। कालान्तर में महेश्वरी देवी ही बम्लेश्वरी कहलाने लगी। तब से ऐसी मान्यता है कि माँ बम्लेश्वरी की जो सच्चे मन से पूजा करता है, उसके सब दुख-दर्द दूर हो जाते हैं।

मुंबई-हावड़ा रेल लाइन के बीच स्थित डोंगरगढ़ रेलवे स्टेशन छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से मात्र एक सौ चार किलोमीटर दूर है। सड़क मार्ग से यहां पहुंचने के लिए रास्ता प्रसिद्ध जी. ई. रोड के तुमड़ीबोड़ से मुड़ता है । राजनांदगांव जिले की यह सबसे बड़ी तहसील है। यहां की आबादी करीब 50 हजार है। पहले डोंगरगढ़ रियासत में शामिल था और खैरागढ़ नरेश कमल नारायण सिंह ने इसकी ख्याति चारों तरफ फैलाई। पहाड़ी की तलहटी पर छोटी बम्लई माता मंदिर के नवनिर्माण के साथ ही उन्होंने माँ की स्तुति में जसगीतों की रचना कर बम्लेश्वरी मैया की ख्याति न सिर्फ छत्तीसगढ़ वरन सम्पूर्ण देश के कोने-कोने में पहुँचाई । सन् 1964 में मंदिर के संचालन के लिए राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक समिति बनाई जो श्री बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति के नाम से जानी जाती हैं। इस समिति ने बम्लेश्वरी मंदिर का विकास तेज गति से किया । इस प्रकार देवी भक्तों की सुवीधा में लगातार इजाफा होता गया । मंदिर ट्रस्ट समिति ने नयी सीढिय़ों के निर्माण के साथ ही यहां पेयजल-आवास एवं सफाई की समुचित व्यवस्था के अलावा रियायती दर पर केंटीन प्रारंभ की, ताकि भक्तगणों को सुविधाएं मिल सकें।

इसी तरह डोंगरगढ़ नगर पालिका परिषद ने मेला स्थल के विकास के साथ ही, रोप-वे उडऩ खटोला का निर्माण कर लाचार एवं बुजुर्ग दर्शनार्थियों की भावनाओं को देवी माँ तक पहुँचाने में सहायता प्रदान की। क्षीरपानी जलाशय के सौंदर्यीकरण में भी चार चांद लग गया है। करीब एक हजार सीढिय़ों की चढ़ाई के दौरान पहाड़ों और जंगलों की नैसर्गिक सुषमा यात्रियों के मन को शांति प्रदान करने के साथ ही अलौकिक सुख का अनुभव कराती है। पहाड़ी की तलहटी पर स्थित तपस्वी तालाब के संबंध में भी कई मान्यताएं हैं। कहा जाता है कि इसके आसपार की गुफाओं में तप करने ऋषि-मुनि आते थे इसलिए इसका नाम तपस्वी तावाब हो गया। इसके साथ हीमाँ रणचण्डी देवी का मंदिर है जिसे टोनी बम्लाई भी कहा जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस मदिर में जादू-चोने की जांच की जाती है। मंदिर मेंभक्त दीपक या अगरबत्ती जलाने के लिए अगर माचिस जलाता है और उसकी माचिस नहीं जलती तो यह माना जाता हैकि उस पर जादू-टोना किया गया है। माचिस अगर जल जाती है तो तंत्र-मंत्र की बात निर्मूल साबित होती है। डोंगरगढ़ की पर्वतवासिनी, माँ बम्लेश्वरी के मंदिर की प्राचीनता संदेह की परिधि से सर्वथा बाहर है। माँ की अतिशय मूर्ति बिगत ढाई हजार से अधिक वर्षों से करोड़ों श्रद्धालुओं की श्रद्धा एवं उपासना का केन्द्र बनी हुई है। मंदिर मार्ग में रणचण्डी मंदिर के अलावा नागदेवता का मंदिर भी है । भीम पैर के संदर्भ में भी कई दंत कथाएं हैं। कहा जाता है कि पाण्डव और भगवान राम ने भी इस नगरी में विचरण किया था।

पहाड़ी से घिरे इस नगर में हर धर्म के लोग अलग-अलग समय में जुटते हैं। चैत्र और क्वांर नवरात्रि में करीब दस से बारह लाख लोग यहां आते हैं तो 6 फरवरी को प्रज्ञागिरी में देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु, गुड फ्राइडे को मध्यभारत का मसीही समाज यहां पूजा करने आता है, तो टेकरी वाले बाबा के उर्स पार्क पर पहुँचने है मुस्लिम भाई।

स्थानीय निवासियों के मुताबिक हर साल करीब 40 लाख से भी ज्यादा लोग बाहर से यहां विभिन्न पूजा स्थलों के दर्शन के लिए आते हैं। छत्तीसगढ़ में इतनी बड़ी संख्या में धार्मिक पर्यटक अन्य किसी स्थान में नहीं जुटते । डोंगरगढ़ के युवा विधायक विनोद खांडेकर इसे पर्यटन स्थल का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं । वे चाहते हैं कि इस क्षेत्र में साइंस और उर्जा पार्क की स्थापना भी हो । पर्यटन स्थल का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इस क्षेत्र में साइंस और उर्जा पार्क की स्थपना भी हो। पर्यटन मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल का ध्यान भी इस ओर आकर्षित कराया है। श्री अग्रवाल भी मानते हैं कि डोंगरगढ़ को बेहतर पर्यटन स्थल बनाया जा सकता है। श्री बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति के अध्यक्ष नटवर भाई पटेल और प्रबंधक कृष्णा कुमार तिवारी भी डोंगरगढ़ की इन विशेषताओं के आदार पर इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की मांग राज्य शासन से कर चुके हैं।

मंदिर समिति ने अभी एक करोड़ रुपए की लागत से अस्पताल निर्माण का काम प्रारंभ किया है जो इस दिशा में सार्थक साबित होगा। पर्यटन मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल ने डोंगरगढ़ के विकास में विशेष रूचि ली है। यहां सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला का निर्माण द्रुतगति से जारी है। वगीं सड़क-पानी के लिए कई विकास कार्य स्वीकृत हुए हैं। स्थानीय विधायक विनोद खांडेकर एवं मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने डोंगरगढ़ को संवारने में पूरा सहयोग प्रदान किया है। आने वाले समय में यहां पर्यटकों की संख्या में दिनोदिन वृद्धि होगी - इस कामना के साथ।

Friday, February 5, 2010

आदिवासियों की आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी


तपेश जैन
पूरे विश्व में अपने वर्जिन फॉरेस्ट के लिए प्रसिद्ध बस्तर अंचल में । जहां लोक कला की परम्पराएं अपने मूल और सहज रूप में पाई जाती हैं। जहां मिट्टी, लकड़ी और धातु को गढ़ती अद्भूत कला के दर्शन होते हैं। जहां गीत-संगीत नृत्य में प्रकृति में समाई हुई है। जहां के लोग भोले भाले हैं और उनकी रक्षा करती है माँ दंतेश्वरी।
हरे-भरे जंगल और आदिम जाति की परंपरा के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है बस्तर। कहते हैं कि कभी ये इलाका बांस के पेड़ों से तर था इसलिए इसका नाम पहले बांस तर था जो बाद में बस्तर हो गया। रामायण काल में इस क्षेत्र का नाम दण्डकारण्य था और भगवान रामचन्द्र ने वनवास का ज्यादातर समय यहां व्यतीत किया था। दण्डकारण्य के इस जंगल में आज भी कई क्षेत्र अबूझ पहले से कम नहीं है। यहां अबूझमाड़ स्थान है जहां मानव सभ्यता ने अभी तक कदम नहीं रखे हैं। आदिम जाति की परंपराओं को संजोकर रखने वाले इस क्षेत्र के वनवासियों की अराध्य देवी है माँ दंतेश्वरी।
छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी से करीब पौने चार सौ किलोमीटर दूर स्थित है दंतेवाडा नगर। बस्तर संभाग के मुख्यालय जगदलपुर से लगभग 85 किलोमीटर की दूर पर बसे दंतेवाड़ा का नाम कहते हैं माँ दंतेश्वरी की कृपा से हुआ। डंकिनी और शंखिनी नदियों के संगम पर प्रस्थापित है माँ दंतेश्वरी का मंदिर। पुरातात्विक महत्व के इस मंदिर का पुनर्निर्माण महाराजा अन्नमदेव द्वारा चौदहवीं शताब्दी में किया गया।
आंध्रप्रदेश के वारंगल राज्य के प्रतापी राजा अन्नमदेव ने यहां अराध्य देवी माँ दंतेश्वरी और माँ भुनेश्वरी देवी की प्रतिस्थापना की। वारंगल में माँ भुनेश्वरी माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है। जैसा कि सब जानते हैं कि महासती द्वारा प्रजापिता महाराजा दक्ष के यज्ञ में देह त्याग के उपरांत देवी सती के अंग जहां-जहां विमोचित हुए वहां-वहां आद्य शक्तिपीठों की स्थापना हुई। कहा जाता है कि महासती के दांत इस स्थान पर संगम स्थल के निकट गिरे और कालांतर में यह क्षेत्र दंतेश्वरी शक्तिपीठ के नाम से विख्यात हुआ और संभवत: इस कारण से इस नगर का नाम दंतेवाड़ा रखा गया।
एक अन्य दंतकथा के मुताबिक वारंगल के ही राजा रूद्र प्रतापदेव जब मुगलों से पराजित होकर जंगल में भटक रहे थे तो कुल देवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि माघपूर्णिमा को वे घोड़े में सवार होकर विजय यात्रा प्रारंभ करें और वे जहां तक जायेंगे वहां तक उनका राज्य होगा और स्वयं देवी उनके पीछे चलेगी लेकिन राजा पीछे मुड़कर नहीं देखें। वरदान के अनुसार राजा ने यात्रा प्रारंभ की और शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम पर घुंघरुओं की आवाज रेत में दब गई तो राजा ने पीछे मुड़कर देखा और कुल देवी यहीं प्रस्थापित हो गई।
दंतेश्वरी मंदिर के पास ही शंखिनी और डंकिन नदी के संगम पर माँ दंतेश्वरी के चरणों के चिन्ह आज भी मौजूद है और यहां सच्चे मन से की गई मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती है।
कथाएं चाहे जो भी हो मगर ये सर्वविदित है कि अराध्य माँ दंतेश्वरी की षट भुजी प्रतिमा के जागृत दर्शन यहां प्राप्त होते हैं और भक्त की मनोकामना पूर्ण होती है। शायद यही कारण है कि यहां भक्तों का तांता लगा रहता है। इन कथाओं की पुष्टि करते हैं मंदिर के मुख्य पुजारी श्री हरीहर नाथ।
माँ दंतेश्वरी की इस नगरी में आस्था, संस्कृति और परंपरा के सारे रंग नजर आते हैं । होली से दस दिन पूर्व यहां फाल्गुन मड़ई का आयोजन होता है जिसमें आदिवासी संस्कृति की विश्वास और परंपरा की झलक दिखाई पड़ती है। नौ दिनों तक चलने वाले फाल्गुन मड़ई में आदिवासी संस्कृति की अलग-अलग रस्मों की अदायगी होती है।
फाल्गुन मड़ई में ग्राम देवी-देवताओं की ध्वजा, छत्तर और ध्वजा दण्ड पुजारियों के साथ शामिल होते हैं। करीब 250 से भी ज्यादा देवी-देवताओं के साथ मांई की डोली प्रतिदिन नगर भ्रमण कर नारायण मंदिर तक जाती है और लौटकर पुन: मंदिर आती है। इस दौरान नाच मंडली की रस्म होती है जिसमें लमान नाचा, जो बंजारा समुदाय द्वारा किए जाने वाले नृत्य के समान होता है, के साथ ही भतरी नाच और फाग गीत गाया जाता है।
मांई जी की डोली के साथ ही फाल्गुन नवमीं, दशमी, एकादशी और द्वादशी को लमहा मार, कोड़ही मार, चीतल मार और गौर मार की रस्म होती है। गौरतलब है कि रियासत शासनकाल में राजा के साथ-साथ प्रजा भी आखेट की शौकीन होती थी। उसके चलते अब ये रस्में प्रतीकात्मक होती हैं। लमहा यानि खरगोश, कोटरी यानि हिरण और चीतल, गौर यानि वन भैंसा का शिकार मनोरंजक ढंग से होता है। इस खेल में एक व्यक्ति शिकार का पशु बनता है और भीड़ में शोर-शराबे, बाजे-गाजे और रस्म के तहत प्रतीकात्मक रूप से शिकार किया जाता है। इस शिकार के खेल और रस्म के दौरान आदिम जाति की कई परंपराएं देखने को मिलती है। अद्भूत और आश्चर्यजनक ढंग से संपन्न होने वाली इस प्रथा और मड़ई का आनंद ही अद्भूत होता है। मड़ई के अंतिम दिन सामूहिक नृत्य में सैकड़ों युवक-युवती शामिल होते हैं और रात भर इसका आनंद लेते हैं।
संस्कृति की अभिव्यक्ति में संगीत कला का सबसे ज्यादा महत्व है। पशु-पक्षी भी अपने हर्ष और आनंद की भावना को व्यक्त करने के लिए नृत्य का सहारा लेते हैं। लोक कला की परम्परा लोक जीवन में सहज रूप से विकसित होती है और ये कलाएं अंचल की संस्कृति की परिचायक होती हैं। फाल्गुन मड़ई में आदिवासियों के गीत-संगीत, रस्म-रिवाज से आदिम जाति संस्कृति को समझा जा सकता है । ये कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारतीय लोक कला कहीं अपने मूल और सहज रूप में जीवित है तो वो ब्सतर में हैं। छत्तीसगढ़ प्रदेश और दंतेवाड़ा जिले के प्रभारी मंत्री श्री केदार कश्यप इस फाल्गुन मड़ई की परंपराओं को संजोने का प्रयास कर रहे हैं।
फाल्गुन मड़ई में दंतेश्वरी मंदिर में बस्तर अंचल के लाखों लोगों की भागीदारी होती है। वनवासी समाज की रीति रिवाजों के साथ ही अब यहां शहरी चकाचौंध भी दिखने लगी है। मड़ई में रोजमर्रा की चीजों के बाजार के साथ ही शहरी झूले और लटके-झटके भी यहां देखने को मिलता है। माँ दंतेश्वरी मंदिर कमेटी के सदस्य श्री अनूप सूद इन परंपराओं के संदर्भ में बताते हैं कि आदिवासी समाज की ये रस्में अद्भूत हैं।
दंतेवाड़ा में माँ दंतेश्वरी की षट् भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है। छह भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाएं हाथ में घंटी, पद्य और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है। यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरुप है। माई के सिर के ऊपर छत्र है जो चांदी से निर्मित है। वस्त्र आभूषण से अलंकृत है। द्वार पर दो द्वारपाल दाएं-बाएं खड़े हैं जो चार हाथ युक्त हैं । बाएं हाथ सर्प और दाएं हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद मुद्रा में है। इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह विराजमान जो काले पत्थर के हैं। यहां भगवान गणेश, विष्णु, शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में प्रस्थापित है। मंदिर के गर्भ गृह में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रवेश प्रतिबंधित है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने पर्वतीयकालीन गरुड़ स्तम्भ से अïवस्थित है। बत्तीस काष्ठï स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। इसलिए गर्भगृह में प्रवेश के दौरान धोती धारण करना अनिवार्य होता है। मांई जी का प्रतिदिन श्रृंगार के साथ ही मंगल आरती की जाती है।
माँ दंतेश्वरी मंदिर के पास ही उनकी छोटी बहन माँ भुनेश्वरी का मंदिर है। माँ भुनेश्वरी को मावली माता, माणिकेश्वरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। माँ भुनेश्वरी देवी आंध्रप्रदेश में माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है और लाखो श्रद्धालु उनके भक्त हैं।
छोटी माता भुवनेश्वरी देवी और मांई दंतेश्वरी की आरती एक साथ की जाती है और एक ही समय पर भोग लगाया जाता है। लगभग चार फीट ऊंची माँ भुवनेश्वरी की अष्टïभुजी प्रतिमा अद्वितीय है । मंदिर के गर्भगृह में नौ ग्रहों की प्रतिमाएं है। वहीं भगवान विष्णु अवतार नरसिंह, माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की प्रतिमाएं प्रस्थापित हैं। कहा जाता है कि माणिकेश्वरी मंदिर का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ। संस्कृति और परंपरा का प्रतीक यह छोटी माता का मंदिर नवरात्रि में आस्था और विश्वास की ज्योति से जगमगा उठता है।
कहा जाता है कि माँ दंतेश्वरी के दर्शन पश्चात् थोड़ी ही दूर में स्थित भैरव मंदिर में पूजा अर्चना करने से पुण्य लाभ द्विगुणित हो जाता है। मान्यता तो यह भी है कि भैरव दर्शन के बिना माँ की आराधना अधूरी मानी जाती है। कहा जाता है कि भैरव मदिर में मांगी गई मनौती अवश्य पूर्ण होती है। यह कहना है यहां के पुजारी का।
संकट हरने वाली, मुंह मांगी मुराद पूरी करने वाली देवी माँ दंतेश्वरी की महिमा का जितना भी बखान किया जाए वह कम है। माँ अपने भक्तों के समस्त कष्टों का निवारण करती है। माता दंतेश्वरी के सम्मुख जो भी भक्त सच्चे हृदय से मनोकामना करता है माँ उसकी मनोकामना को पूर्ण करती है। माँ दंतेश्वरी के सामने हर भक्त अपना शीश झुकाता है और हृदय से एक ही आïवाज गूंजती है - जय माता दी।
आदिवासियों की आराध्य मां दंतेश्वरी के जसगीत स्थानीय हल्बी बोली में घर-घर में गाए जाते हैं।
दंतेवाड़ा से लगभग 34 किलोमीटर दूर प्रतापी राजा बाणासुर की राजधानी बारसूर में विश्व प्रसिद्ध भगवान गणेश की विशालकाय युगल प्रतिमा अद्भूत है, वहीं यहां बत्तीसा मंदिर और मामा भांचा का मंदिर भी दर्शनीय स्थल है।
बारसूर से ही कुछ ही दूर पर विश्व प्रसिद्ध नियाग्रा जलप्रपात का लघु रूप चित्रकोट जलप्रपात पर्यटकों का मन मोह लेता है। बस्तर अपने जंगल और वनवासी जीवन की रीति-रिवाजों के लिए मशहूर है।

छत्तीसगढ़ का एकमात्र ऐतिहासिक महालक्ष्मी देवालय लखनी देवी मंदिर

तपेश जैन
प्राचीन दक्षिण कौशल यानी वर्तमान छत्तीसगढ़। छत्तीसगढ़ प्राचीन संस्कृति और धार्मिक भावना से ओत-प्रोत तंत्र-मंत्र साधना और सिद्धियों का राज्य रहा है। मौर्य, सातवाहन, बाकारक, गुप्त, सोम, शरभपुरी और कलचुरी राजाओं ने इस छत्तीसगढ़ में राज्य किया है। कल्चुरी राजाओं ने इस छत्तीसगढ़ में राज्य किया है । कलचुरी राजाओं की राजधानी रतनपुर में शक्तिपीठ माँ महामाया देवी मंदिर के साथ ही लखनी देवी मंदिर का भी विशेष महत्व है। अभी तक ज्ञात मंदिरों की बात करें तो रतनपुर का लखनी देवी मंदिर छत्तीसगढ़ का एकमात्र महालक्ष्मी यानी धन की देवी का एकमात्र ऐतिहासिक और पौरोणिक महत्व का मंदिर कहा जा सकता है। राजा रतनदेव द्वितीय के महामंत्री पंडित मंगाधर शास्त्री द्वारा बनवाकर गए इस मंदिर का आकार पुराणों में वर्णित पुष्पक विमान की तरह है। इस मंदिर की अपनी बपहुत सी विशेषताएँ है जिस पर गहन अध्ययन की आवश्यकता है। वैसे तो माँ महामाया को महाकाली, महालक्ष्मी और माँ सरस्वती का रूप माना जाता है और कहते हैं कि इसे दो रूप माँ महामाया मंदिर में दर्शन होते हैं और विलुप्त सरस्वती ठीक वैसी है जैसे इलाहाबाद के त्रिवेणी संगम में गंगा और यमुना नदी के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं और सरस्वती विलुप्त रूप में इसे त्रिवेणी में शामिल होती है। इसे अगर इस रूप में देखे तो महामाया में महालक्ष्मी का वास है।
बिलासपुर कोरबा मुख्य मार्ग पर स्थित रतनपुर कभी कल्चुरी राजाओं की राजधानी रहा है। कहते हैं करीब एक हजार वर्ष पहले राजा रत्नदेव माणिपुर नामक गांव में आकर शिकार के लिए आए थे और रात्रि ने एक वटवृक्ष में विश्राम के दौरान आदिशक्ति माँ महामाया की सभा से चकित होकर अपनी राजधानी तुम्माणखोल से यहाँ स्थापित की थी। 1050 ईस्वी में उन्होंने महामाया मंदिर की स्थापना की थी जिसमें महाकाली, महालक्ष्मी और माँ सरस्वती की भव्य और कलात्मक प्रतिमाएं विराजमान है। वहीं 1326 ईस्वी में राजा रत्नदेव तृतीय ने प्रधानमंत्री गंगाधर शास्त्री से महालक्ष्मी का ऐतिहासिक मंदिर बिलासपुर कोटा मार्ग पर करवाया। पुराणों में वर्णित पुष्पक विमान के आकार का यहां मंदिर पहाड़ी पर स्थित है। अभी यहाँ सीढिय़ों का निर्माण हो गया है। करीब तीन सौ सीढ़ी की चढ़ाई पर स्थित माँ लक्ष्मी को छत्तीसगढ़ में लखनीदेवी कहा जाता है। नवरात्रि में यहाँ मंगल ज्वार बोने के साथ ही धार्मिक अनुष्ठïान होते हैं।
छत्तीसगढ़ के इतिहास में अगर नजर डाले तो लखनी देवी का मंदिर अपने स्थापन एवं निर्माण कला के लिए अद्भूत है। यहाँ क्वांर और चैत्र दोनों नवरात्रि में माँ महामाया मंदिर की ही तरह लाखों लोग दर्शन करने पहुँचते हैं । छत्तीसगढ़ के स्थानीय निवासियों में माँ लक्ष्मी यानी लखनीदेवी के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास है। बिलासपुर संभाग में लखनीदेवी मंदिर की बहुत मान्यता है। अब इस मंदिर के नीचे श्री लखनेश्वर महादेव का मंदिर भी निर्मित हो गया है जो श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केन्द्र है।

कौमारी शक्तिपीठ - आदिशक्ति महामाया मंदिर रतनपुर


तपेश जैन
छत्तीसगढ़ प्राचीन समय से ही शक्ति उपासना का केन्द्र रहा है। यहां के राजवंशों की अपनी अराध्य देवियां रही है । छत्तीसगढ़ के दक्षिण भू-भाग में मां दंतेवश्वरी की पूजा की जाती है तो उत्तर के भूभाग में महामाया का प्रताप है।
राजधानी रायपुर से लगभग 140 किलोमीटर दूर रतनपुर पहाड़ों के बीच बसा है। कभी यहां 1400 से भी ज्यादा तालाब थे। कहते हैं कि महाभारत काल में इस स्थान का नाम रत्नावली था। कहा तो ये जाता है कि यहां कभी नालंदा विश्वविद्यालय जैसा शिक्षा का केन्द्र स्थापित था। दसवीं शताब्दी में कलचुरी राजा रत्नदेव ने तुम्माण खोल से राजधानी यहां लाई और शक्तिरूपेण माँ महामाया की यहां स्थापना की। जंगल और पहाड़ों के बीच स्थापित रतनपुर का महामाया मंदिर तंत्र और शक्ति आराधना का केन्द्र रहा है। नागर शैली में बने मंदिर का मण्डप 16 स्तम्भों पर टिका हुआ है। भव्य गर्भगृह में माँ महामाया की साढ़े तीन फीट ऊंची दुर्लभ प्रस्तर प्रतिमा स्थापित है । दंतकथाओं के अनुसार माँ की प्रतिमा के पृष्ठï भाग में माँ सरस्वती की प्रतिमा है जो विलुप्त मानी जाती है।
आदि पीठ माँ महामाया देवी के इस ऐतिहासिक मंदिर में चैत्र एïवं क्वांर दोनों नवरात्रि के अवसर पर प्रतिदिन लाखों श्रद्धालु माँ महामाया के दर्शनकर पुण्य लभा प्राप्त करते हैं। प्रसिद्ध दंतकथा के अनुसार देवी सती का दाहिना स्कंध इस पवित्र धरा में विमोचित हुआ था इसलिए इसे कौमारी शक्तिपीठ के रूप में भी स्वीकार किया जाता है इसके कारण से कुंवारी कन्याओं को माँ के दर्शन से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। यहाँ की शक्ति कुमारी और भैरव भगवान शिव है।
छत्तीसगढ़ में जंवारा जगाकर और जो जलाकर माता सेवा की परंपरा है। देवी के रूप में नवांकुरित गेहूँ, जौं, की अराधना नौ दिन तक की जाती है। वहीं नौ दिन तक जलने वाली अखंड ज्योति से जीवन के अंधकार समाप्त हो जाते हैं। यहां 17 हजार से भी ज्यादा मनोकामना ज्योति प्रज्जवलित की जाती है।
छत्तीसगढ़ में जंवारा जगाने एवं अखंड जोत जलाने के अलावा जसगीत के माध्यम से देवी के सामूहिक गुणगान की परंपरा है। जसगीत छत्तीसगढ़ी लोक जीवन के आस्था के गीत है। और जसगीतों ने भक्ति को अलग ही रूप प्रदान किया है। माँ महामाया मंदिर के प्रांगण में माँ भद्रकाली का मंदिर और भगवान सूर्य, श्री विष्णु, श्री हनुमान, श्री भैरव और भगवान शिव की प्राचीन प्रतिमाएं प्रस्थापित है।
आदिशक्ति माँ महामाया मंदिर के पृष्ठï भाग में ही कण्डी देवल मंदिर प्रस्थापित है। नीलकंठ महादेव के इस भव्य मंदिर का पूर्वनिर्माण केन्द्रीय पुरातत्व विभाग ने कराया है। राष्टï्रीय धरोहर की सूची में शामिल ये मंदिर 15वीं शताब्दी का है।
कण्डीदेवल मंदिर को भरव उपासकों के तंत्र-मंत्र साधना का स्थल भी माना जाता है। इस मंदिर की एक और खास विशेषता ये है कि इसके चारों दिशाओं में प्रवेश द्वार है और दीवारों पर देवी-देवताओं के चित्र उत्कीर्ण है। श्री महामाया देवी मंदिर के पाश्र्व में आम्रकुंजों से घिरे बैरागवन में सरोवर के साथ ही भगवान नर्मदेवश्वर महादेव का मंदिर है और दूसरी ओर राजा राजसिंह का भव्य स्मारक है जिसे बीस दुवारिया मंदिर कहते हैं। ये मंदिर मूर्ति विहीन है और इसमें 20 द्वार है। बैरागवन के पास ही खिचरी केदारनाथ का प्राचीन मंदिर भी दर्शनीय है।
आदि शक्ति माँ महामाया मंदिर की कुछ ही दूरी पर श्री काल भैरव का मंदिर है जहाँ करीब नौ फीट श्री कालभैरव की भव्य प्रतिमा विराजमान है। तंत्र साधना के केन्द्र और कौमारी शक्तिपीठ होने के कारण श्री कालभैरव की पूजा अर्चना का विशेष महत्व है।
श्री काल भैरव मंदिर से कुछ ही दूर पर पहाड़ी पर माँ महालक्ष्मी का भव्य मंदिर है। लखनी देवी मंदिर के नाम से विख्यात इस मंदिर का निर्माण तेरहवीं शताब्दी में गंगाधर शास्त्री ने करवाया था इस मंदिर का आकार शास्त्रों में वर्णित पुष्पक विमान की तरह है। यहां नवरात्रि में जंवारा बोया जाता है और कई अनुष्ठïान संपन्न होते हैं।
लखनी देवी मंदिर के आगे मुख्य मार्ग पर ऐतिहासिक शहर नामक बस्ती है जिसके राजा ---------- था और अपनी महारानी के लिए बादल महल का निर्माण करवाया था।
रतनपुर बिलासपुर मार्ग पर श्री खंडोबा मंदिर भी दर्शनीय स्थल है। यहाँ भगवान शिव और भवामी की अश्वरोही प्रतिमा प्रस्थापित है। इस मंदिर का निर्माण मराठा नरेश बिंबाजी भोसले की रानी ने अपने भतीजे खांड़ों जी की स्मृति में करवाया था। दंत कथा है कि मणिमल्ल नामक दैत्यों के संहार के लिए भगवान शिव ने मार्तण्ड भैरव का रूप धारण कर सह्यादि पर्वत पर संहार किया था। इस मंदिर के पाश्र्व में प्राचीन सरोवर दुलहरा तालाब स्थित है।
कभी ये कलचुरीकालीन भवन निर्माण का बेजोड़ नमूना था और इसमें साथ मंजिले थीं। अब दो मंजिल ही शेष रह गई हैं। इसलिए सतखंडा महल भी कहा जाता है। महल के पास ही अस्तबल और जूना शहर में कोको बाबली और कंकन बावली भी उल्लेखनीय स्थल है।
महामाया मंदिर से कुछ ही दूर पर राजा पृथ्वीदेव द्वारा निर्मित ऐतिहासिक किला के पुरा अवशेष स्थित है। चारो तरफ खाइयों से घिरे राजे किले में चार दरवाजे सिंहद्वार, गणेश द्वार, भैरव द्वार और सेमर द्वार बने हुए हैं।
गज किला से थोड़ी ही दूर पर स्थित है वृद्धेश्वर महादेव का मंदिर। बूढ़ा महादेव के नाम से प्रसिद्ध इस मंदिर का निर्माण राजा पृथ्वीदेव द्वितीय ने करवाया था।
बूढ़ा महादेव के ऊपर पहाड़ी पर स्थित हे रामटेकरी मंदिर। श्री मंदिर में भगवान राम, देवी सती, भरत, लक्ष्मण और शत्रुहन की प्रतिमा पंचायतन शैली में विराजमान है।
रामटेकरी मंदिर मार्ग के आगे हैं गिरजावन श्री हनुमान मंदिर। इसका भी निर्माण राजा पृथ्वीदेव द्वितीय द्वारा करवाया गया था। दक्षिण मुखी भगवान हनुमान का ये मंदिर ऐतिहासिक है।
कभी मणिपुर के नाम से विख्यात रहे रतनपुर की महत्ता हर काल में रही है। पौराणिक ग्रंथ महाभारत जैमिनी पुराण में भी इसे राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। इसे चतुर्दशी नगरी भी कहा जाता है जिसका अर्थ है कि इसका अस्तित्व चारो युगों में रहेगा।

देश का पांचवा कुंभ - राजिम


तपेश जैन
राजिम में हर वर्ष लगने वाले कुंभ मेला में साधु संतों के समागम के साथ हिंदुस्तान की पुरातन परंपराओं को पुनर्जीवित करने की पहल परिलक्षित होती है। वेलेंटाइन डे, फ्रेंडशीप डे, रोज डे जैसे पश्चिमी संस्कृति के पर्वो ने जहां पैर पसार लिए हो वहां प्रतिवर्ष कुंभ स्वरूप मेले की अवधारणा कर उसे सफल करने का प्रयास छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ड़ॉ. रमन सिंह व पर्यटन-संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के लिए चुनौती से कम नहीं था, लेकिन महाशिवरात्रि के पावन दिन छत्तीसगढ़ के प्रयाग राजिम के महानदी-पैरी और सोंढर नदियों के संगम स्थल पर नागा साधुओं के साथ साधु-संतों के शाहीस्नान ने 12 वर्षों में होने वाले चार पुण्य स्थलों की परंपराओं को नया आयाम दिया। माघपूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक आयोजित इस राजिम कुंभ में देशभर के दो हजार से भी अधिक धार्मिक संप्रदाय, अखाड़ों के महंत, साधु-संत-महात्मा, धर्माचार्य और महामंडलेश्वर के साथ ही शंकराचार्य श्री निश्चलानंद जी सरस्वती, अनंत श्री विभूषित द्वारका-शारदा पीठाधीश्वर जगदगुरू स्वामी स्वरूपानंदजी सरस्वती महाराज के समागम आशीर्वाद से यह पुण्य धारा ने अमृत चखा है।
किवंदती है कि देवताओं और दानवों के बीच हुए समुद्र मंथन के बाद जो अमृत निकला था उसकी कुछ बूंदे नासिक, उज्जैन, इलाहाबाद और हरिद्वार में छलकी थी। इन स्थानों में स्थित वृंदावनी, क्षिप्रा, त्रिवेणी संगम और पवित्र गंगा नदी के तट पर 12 साल बाद महाकुंभ का आयोजन होता है।
पुराणों में कहा गया है कि ''अश्वमेघ सहस्त्राणी वाजपेयी समानिच: लक्षौ: प्रदिक्षिणा भूमै: कुंभ स्नानै: पद फलम।ÓÓ
अर्थात आप हजारों वर्षों में यज्ञ कर लें, और हजारों बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर लें उससे कई अधिक गुणा पुण्य कुंभ काल में स्नान से होता है। नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य के हृदय स्थल राजिम की राजधानी रायपुर से दूरी करीब 45 किलोमीटर है। राजिम का अपना धार्मिक महत्व है। यहां के करीब एक दर्जन देवालय देवधरा की देन है।
छत्तीसगढ़ वैसे भी अद्भुत प्रदेश है। यहां की कला संस्कृति, रीति-रिवाज आज भी अबूझ पहेली है। इस प्रदेश के एक बड़े भूभाग को आज तक किसी ने नहीं जांचा-परखा। ''नो मैंस लैण्डÓÓ जैसी इस जगह का नाम है ''अबूझमाड़ÓÓ। आश्चर्यजनक पहलुओं को समेटे इस प्रदेश को भगवान रामचंद्र जी का ननिहाल माना जाता है। कहते हैं कभी इस प्रदेश का नाम दक्षिण कोसल था। कोसल नरेश की सुपुत्री कौशल्या का विवाह अयोध्या नरेश राजा दशरथ से हुआ। कहा तो यहभी जाता है कि रामकथा में जिस दंडकारण्य का वर्णन है वह यहीं छत्तीसगढ़ प्रदेश का बस्तर वन प्रक्षेत्र है जहां भगवान राम ने 14 साल के वनवास का ज्यादातर समय व्यतीत किया। भगवान रामचंद्र माता सीता एवं लक्ष्मणजी ने यहां महानदी पैरी सोंढूर नदियों के संगम स्थल कमल क्षेत्र वर्तमान नाम राजिम के तट पर बने महादेव कुलेश्वर के दर्शन किए थे। भगवान राम के चरण कमल से पवित्र हुए इस संगम की महिमा ही निराली हो गई। युगों-युगों से यहां माघ पूर्णिमा से लेकर शिवरात्रि तक महोत्सव आयोजित होते रहे। महादेव कुलेश्वर के साथ ही यहां पंचकोसी मंदिर की अगहन और माघ मास में पंचकोसी परिक्रमा का विशेष महत्व होता है।
यहां भगवान श्री राजीव लोचन मंदिर में देवविग्रह की पूजा के पश्चात पैरी नदी सोंढूर नदी - महानदी के संगम में स्नान के बाद महादेव कुलेश्वर से प्रारंभ होती है पंचकोसी परिक्रमा, ग्राम पटेवा में पटेश्वर महादेव, महाप्रभु वल्लाभाचार्य की प्रकाट्य स्थली चंपारण्य में चंपेश्वर महादेव, बृम्हनी में ब्रम्हनेश्वर, फिंगेश्वर में फणिकेश्वर और कोपरा में कर्पूरेश्वर दर्शन के बाद कुलेश्वर महादेव मंदिर तक की पंचकोसी परिक्रमा की परंपराएं आदिकाल से जारी हैं। महादेव कुलेश्वर मंदिर के पास ही स्थित प्रसिद्ध लोमश ऋषि का आश्रम दंतकथाओं का साक्ष्य है।
इस पौराणिक धार्मिक स्थल में कई दंतकथाएं प्रचलित है। सती तेलिन राजिम और भगवान विष्णु के श्री विग्रह के साथ ही यहां ईंटों से निर्मित श्री राजीव लोचन मंदिर इतिहास के कई रहस्यों को समेटे हुए हैं। छत्तीसगढ़ के पुरातात्विक वैभव और श्रेष्ठï मूर्तिकला का साक्ष्य श्री राजीव लोचन मंदिर के शिलालेख आठवीं-नौवीं शताब्दी और संवत 895 सन 1145 के है। कलचुरि शासक पृथ्वी देव द्वितीय के सेनापति जगतपाल द्वारा इस मंदिर निर्माण की कथाएं इतिहास में दर्ज हैं।
तीन नदियों के प्राय:द्वीप पर स्थित कुलेश्वर महादेव के मंदिर में स्थापित शिवलिंग को महानदी-पैरी और सोंढूर बारिश के दौरान पांव पखारती है। कहते हैं कि कितनी ही बारिश क्यों न हो यह मंदिर नहीं डूबता है, दूसरे तट पर स्थित पंचेश्वर महादेव इसकी रक्षा करते हैं। छत्तीसगढ़ में इन दोनों मंदिरों को मामा-भांचा का मंदिर कहा जाता है। कुलेश्वर महादेव यानी भांचा जब बारिश के पानी में डूबने लगते हैं तो वे मामा पंचेश्वर महादेव से गुहार लगाते हैं और वे उसकी रक्षा भी करते हैं। इस तरह की कई मान्यताएं प्रचलित हैं।
बहरहाल राजिम महात्मय के संदर्भ में जितना कुछ कहा जाए कम है। हजारों साल का इतिहास, पुरातत्व वैभव और धार्मिक आस्था के इस संगम में कुंभ मेले का हर वर्ष आयोजन अतीत से आगत तक के स्वर्णिम पलों को नव आयाम प्रदान करना है। इस आयोजन से छत्तीसगढ़ को समझने बूझने का अवसर देश-विदेश के लोगों को मिला है। यहां कुंभ मेले के दौरान प्रति दिन होने वाले लोक कला के कार्यक्रमों ने छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति को संजोने का भी काम किया है। इसकी ख्याति जैसे-जैसे फैलेगी और इसकी व्यवस्था में सुधार होगा। राजिम कुंभ छत्तीसगढ़ को नयी पहचान देगा।

सुख समृद्धि के देव-तिरुपति बालाजी


त्रेतायुग में भगवान श्री राम चंद, द्वापर मेें श्रीकृष्ण और कलियुग में श्री वेकटेंश्वर ने अवता लेकर मानव जगत की रक्षा की है। ऐसी मान्यता है कि बालाजी श्री विष्णु कलियुग में बैकुंठ को छोड़कर तिरुपति-तिरुमला की पहाड़ी पर माता लक्ष्मी-पद्मावती के साथ विराजमान हैं। भगवान श्री वेंकटेश्वर के दर्शन से ही मनुष्यों के सभी पाप कर्म का नाश हो जाता है। और उन्हें सुख-समृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त होता है। विश्व में सबसे समृद्ध भगवान के रूप में ख्याति प्राप्त तिरुपति बालाजी का दर्शन हर साल करोड़ो लोग करते है और अरबो रुपये का चढ़ावा चढ़ाते हैं।
धन के देवता के रूप में प्रसिद्ध तिरुपति बालाजी का मंदिर आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित हैं। चेन्नई से करीब 130 किलोमीटर दूर तिरुपति रेल-सड़क और वायु मार्ग से जुड़ा है। आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की सीमा पर सप्तगिरी पर्वत श्रृंखला के शीर्ष पर विराजमान भगवान श्री वेंकटेश्वर की कई दंत कथाएं है। इसके मुताबिक ऋषियों ने मानव जगत के कल्याण हेतु महायज्ञ का आयोजन किया और इसके फल के लिए उचित देवता की जवाबदारी महार्षि भृगृ को सौंपी गई। ब्रम्हा, विष्ण,ु महेश में से पात्र चयन की प्रक्रिया में महार्षि भृगृ को ब्रम्हा और महे ने यथोचित सम्मान नहीं दिया। इसके उपरांत ऋषि भृगृ जब श्री विष्णु के पास पहुंचे तो वे निद्रालीन थे। इससे कुपति होकर भृगृ ऋषि ने उनके वक्ष पर चरण प्रहार कर निद्रा भंग की। ऋषिवर के आने का कारण प्रभु जानते थे सो उन्होंने विनम्रता से पूछा कि कहीं उनके चरणों में दर्द तो नहीं हुआ। इस विनम्रता से प्रभावित होकर महार्षि भृगृ ने श्री विष्णु को देवों में सर्वश्रेष्ठ और यज्ञफल के लिए योग्य माना। वहीं दूसरी ओर माताश्री लक्ष्मी ऋषि के इस व्यवहार से रुष्ट होकर पृथ्वी लोक गमन कर गई। कहते हैं कि माता लक्ष्मी ने सप्तगिरी में रहने वाले आकाश राजा की पुत्री के रुप में जन्म लिया वहीं दूसरी ओर भगवान श्री विष्णु खोज करते हुए यहां पहुंचे और उन्होंने इस पर्वत श्रृंखला में अपना बहुत समय व्यतीत किया। यहीं उनका विवाह माता पद्मावती से हुआ और उसके बाद उनके बड़े भाई गोविंदराज स्वामी ने यहां इस विग्रह मंदिर का निर्माण किया। कहते हैं श्री वेंकेटेश्वर ने कुबेर से इस निर्माण हेतु ऋण लिया जिसे भक्तगण अदा करते हैं। पूरे भारत में हुंडी में धन-द्रव्य चढ़ाने के अलावा केशदान की परंपरा अनूठी है।
एक दूसरी दंतकथा के मुताबिक भगवान विष्णु ने यहां विश्राम किया था। इसके लिये गरुण ने बैकुं से पुष्करिणी सरोवर यहां स्थापित किया। मान्यता है कि बैकुंठ एकादशी को भगवान यहां प्रगट होते हैं और इस दिन पुष्करिणी में स्नान करने और भगवान के दर्शन से मनुष्य के सब पाप धुल जाते हैं। पुराण और शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है।
दूसरी ओर मंदिर निर्माण को लेकर इतिहासकारों की अलग-अलग राय है। लेकिन पांचवी शताब्दी में यह मंदिर प्रमुख धार्मिक स्थल बना हुआ है। तमिल राजा थोडेईमान के बाद चोल और कांचीपुरम के पल्ल शासकों ने 15 वीं शताब्दी तक इस मंदिर का संर्वधन किया। इसके बाद विजयनगर के शासक कृष्णदावराय ने इस मंदिर की महत्ता बरकरार रखी। मंदिर के मंडप मेंं राजा कृष्णदेव राय और उनकी पत्नी की मूर्तियो के अलावा मुगल सम्राट अकबर के मंत्री टोडरमल की प्रतिमा यहां स्थापित है। इसके बाद हाथीराम मठ के महंत कई सालों तक मंदिर की सेवा करते रहे। अंग्रेजों के शासनकाल में भी यह मंदिर प्रसिद्ध रहा है और सन् 1933 में यहां ट्रस्ट तिरुपति-तिरुमला देव स्थानम की स्थापना की गर्ई।
11 वीं शताब्दी में संत रामानुजचार्य ने तिरुमला की पहाडिय़ों में तपस्या की और श्री वेंटकेश्वर ने उन्हें आशीर्वाद प्रदान किया। वे 120 वर्षों तक जीवित रहे। रामानुजाचार्य ने इसकी ख्याति को दूर-दूर तक पहुंचाया।
तमिल भाषा में तिरु का अर्थ संस्कृत के शब्द श्री के समान माता लक्ष्मी के लिए प्रयोग होता है अत: तिरुपति यानी लक्ष्मी पति। तिरुपति से करीब 22 किलोमीटर की ऊंचाई पर सप्तगिरी पर्वत, शेषनाग के फन की तरह सात पहाडिय़ों की श्रृंखला है। शेषाद्रि, नीलाद्रि, गरुड़ाद्रि, अंजनाद्रि, वृषभाद्रि, नारायणाद्रि और वेंकटाद्रि। सातवीं पहाड़ी वेकटाद्रि पर ही स्थापित है श्री वेंकटेश्वर का विग्रह। दक्षिण भारतीय वास्तुकला एवं शिल्प का अद्भुत उदाहरण है यह मंदिर।
मंदिर परिसर में अनेक द्वार और मंडप स्थापित है। मुख्य मंदिर स्वर्ण पतरों से विभूषित है। जिसके गर्भग्रह में भगवान की सात फुत ऊंची श्याम वर्णीय प्रतिमा स्थापित है। भगवान श्री बालाजी अपने हाथ में शंख, पद्म, चक्र और गदा धारण किये हुए हैं। एक ओर श्रीदेवी तो दूसरी ओर भूदेवी विराजमान है। भगवान के विग्रह पर भीमसेनी कर्पूर का तिलक किया जाता है,जो प्रसाद के रूप में वितरित होता है। भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन से पूर्व स्वामी पुष्करिणी में स्नान कर नये कपड़े धारण करने के पश्चात सरोवर के तट पर बने वराह स्वामी का दर्शन कर नैवेघम चढ़ाना चाहिए। कहते हैं इस क्षेत्र के स्वामी वराह थे। भगवान श्री वेंकेटेश्वर के दर्शन पश्चात हुंडी में केश एवं धन-द्रव्य अर्पण की परंपरा है और यह माना जाता है कि भगवान अपने भक्तों को चढ़ावे से कई गुना अधिक वापसी का आशीर्वाद प्रदान करते हैं। दर्शन पश्चात भक्तों को प्रसाद के रूप में मीठी पोंगल या दही-चावल प्राप्त होता हैं। वहीं तिरुपति के लड्डू भी अपने विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध है। बेसन, घी और सूखे मेवे से बने लड्डू का पेटेंट भी किया गया है
तिरुमला की सम्पूर्ण व्यवस्था टीटीडी के देखरेख में होती है। दक्षिण भारत के इस मंदिर की कई खासियतें हैं। सबसे बड़ी यह की इस संपूर्ण क्षेत्र की साफ-सफाई हर वक्त की जाती है। दूसरे यात्रियों के आवास एवं भोजन की सबसे अच्छी व्यवस्था है। आवास के लिए हजारों काटेज और बड़े-बड़े काम्प्लेक्स है तो नि: शुल्क भोजन भी टीटीडी उपलब्ध करवाता है। फ्री बस सेवा, हास्पीटल के साथ ही प्रतिदिन सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन होता है। तिरुमला की यात्रा बस के अलावा पैदल भी की जाती है और टीटीडी ऐसे यात्रियों का सामान नि: शुल्क तिरुपति से तिरुमला पहुंचाने की व्यवस्था करता है। टीटीडी ने श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए वैकुंठम क्यू काम्पलेक्स का निर्माण किया है जहां आराम से अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं। तिरुपति-तिरुमला देवस्थानम ट्रस्ट की संपूर्ण व्यवस्था बेहतर और इसे अन्य किसी दूसरे स्थान से सर्वश्रेष्ठ बनाती है। आवास एवं दर्शन की व्यवस्था इंटरनेट के माध्यम से भी की जा सकती है। इससे श्रद्धालुओं को बेहतर सुविधा मिली है।
तिरुमला में भगवान श्री वेंकटेश्वर के दर्शन पश्चात स्वामी वेणुगोपाल, आकाशगंगा पाप विनाशम, शिला तोरणम, श्री वारि पादलु, चक्रम तीर्थम, कपिल तीर्थम आदि स्थान भी आस्था के केन्द्र हैं। इन स्थानों के लिए बस जीप और टैक्सी की सुविधा है। श्री वेंकटेश्वर मंदिर से दो किलोमीटर दूर स्वामी वेणुगोपाल के साथ ही हाथीराम की समाधि है। वहीं आकाशगंगा में जल प्रपात है। यहां का जल मंदिर के कार्यों में उपयोग किया जाता है। इस के प्रपात के नीचे श्री हनुमान जी का मंदिर है। आकाशगंगा से कुछ ही दूर पर पाप विनाशम में झरना है जो श्री वेंकटेश्वरा सेंचुरी पार्क में स्थित है। कहते हैं पाप विनाशम में स्नान करने से सारे पाप धुल जाते हैं यहां माता भवानीगंगा का मंदिर है। तिरुमला के दूसरी पहाड़ी पर श्री वारिपादुल में भगवान के श्री चरण स्थापित हैं। वहीं शिला तोरणम संपूर्ण एशिया में अनूठा है जहां पहाड़ इंद्रधनुष के आकार में टूटा हुआ है। उसके साथ ही चक्रमतीर्थ भगवान श्री विष्णु का सुदर्शन चक्र की कथा में संबंधित हैं।
तिरुमिला में भगवान श्री बालाजी के दर्शन पश्चात तलहटी में बसे तिरुपति में माता पदमावती का मंदिर है जहां भक्त माता के दर्शन करते हैं। तिरुपति में स्वामी गोविंदराज का मंदिर भी अद्भूत है इसका विशाल गोपुरम और भगवान निद्रालीन अवस्था में विग्रह के दर्शन होते हैं। यह मंदिर रामानुजाचार्य ने बनवाया था। इस मंदिर से कुछ ही दूर पर श्री राम मंदिर है जहां भगवान श्री राम, लक्ष्मण और माता सीता जी के साथ विराजित है। इस मंदिर के सामने अंजनाद्री मंदिर में श्री हनुमान के दर्शन होते हैं। तिरुपति में अलपिरी पहाड़ी में तलहाटी में इस्कान श्री कृष्णा मंदिर भी श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र बनता जा रहा है।
तिरुपति बालाजी की तीर्थयात्रा कलियुग में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। सुख-समृद्धि की मनोकामना यहां पूरी होती है इसलिये देश-विदेश में तिरुपति बालाजी का सर्वोत्तम स्थान है।